कोविड 2.0 में गांधी होते, तो क्या करते, क्या न करते!

पिछली सदी में मोहनदास करमचंद गांधी से अधिक प्रभावित करने वाला दूसरा व्यक्तित्व शायद ही कोई विश्व के इतिहास में दर्ज हुआ हो। महात्मा गांधी ने भी अपने जीवनकाल में महामारी को देखा था, तो प्रश्न वाजिब है कि कोरोना महामारी की जिस प्रलंयकारी दूसरी लहर से भारत गुजर रहा है, अगर वह होते तो उनका नजरिया क्या होता? पिछली सदी को इतिहास में गांधी की सदी ही कहा गया, यह सवाल ऐतिहासिक महत्व का न भी हो, पर तार्किक तो यकीनन है ही! भारतीय इतिहास और संस्कृति की सुदीर्घ परंपरा में विचारकों की लंबी फेहरिस्त है, पर गांधी के बाद शायद राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक वैचारिकी को इतने बहुआयामी स्तर पर, इतना गहरे तक प्रभावित करने वाला दूसरा विचारक नहीं ही दिखता है। इस लिहाज से गांधी की टाइम मशीनी, काल्पनिक उपस्थिति और उससे जुड़ी फेंटेसी की यह दुनिया किसी के लिए दिलचस्प हो सकती है, तो किसी-किसी के लिए खीज भरी भी। 

महामारी से उनका पहला परिचय दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान हो गया था। फिर वह 1915 में भारत आ गए। एक अनुमान के अनुसार 1918-19 की इन्फ्लूएंजा की महामारी में लगभग दो करोड़ यानी विभाजन के दंगों से 40 गुना ज्यादा मौतें हुई थीं। इससे हुई अपने बड़े बेटे हरिलाल गांधी की पत्नी गुलाब और उनके बेटे की मृत्यु ने गांधी को भीतर तक आहत किया था। पर ऐतिहासिक स्रोत बताते हैं कि वह इस महामारी को बहुत तवज्जो नहीं दे रहे थे, इसकी एक वजह तो खुद उनकी गिरती सेहत भी होगी। स्पेनिश फ्लू पर सबसे प्रामाणिक किताब पेल राइडर: द स्पेनिश फ्लू ऑफ 1918 लिखने वाली लौरा स्पिनी मानती हैं कि गांधी को भी स्पेनिश फ्लू हुआ था। यहां तक कि साबरमती आश्रम के अनेक लोग इससे पीड़ित हुए थे, उनके प्रिय मित्र सीएफ एन्ड्रयूज को भी हुआ था, और विडंबना यह भी थी कि महात्मा उन सबके लिए कुछ नहीं कर पाए थे। जूडिथ एम ब्राउन के अनुसार, इसी कारण 1918 के उत्तरार्ध में भारतीय राजनीतिक पटल पर वे लगभग अदृश्य ही लगते हैं। इतना जरूर है कि गांधी के जीवन से जुड़ी, उनकी अपनी लिखी किताबों में इस महामारी के दिनों के बेहद छिटपुट उल्लेख हमें मिल ही जाते हैं। 

पर सवाल तो यह है कि वैष्णव जन तो तेने कहिए के महागायक गांधी 21वीं सदी में होते तो क्या करते? पराई पीड़ को जानकर क्या व्यवहार करते? मुझे लगता है कि गांधी दर्शन के आंशिक अध्ययन से भी यह कहा जा सकता है कि वह मोदी सरकार का खुला विरोध नहीं करते, ठीक वैसे ही, जैसे उन्होंने विश्व युद्ध में अंग्रेजों का यह कहकर नहीं किया था कि यह अनैतिक होगा। शायद यही नैतिक प्रश्न और समाधान उनके सामने आज भी होता। पर इसके साथ मुझे यह भी लगता है कि वे हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठे होते, नोआखाली की तरह कोरोना से ज्यादा प्रभावित इलाकों में होते। 
यह भी संभव था कि सरकार को वह ऐसे पत्र लिखते जिसमें सरकार की नीतियों, विफलताओं की कड़क आलोचना या डांट होती और सुझाव होते, पर ऐसे पत्रों को संकटकाल के गुजर जाने तक गोपनीय रखने की शर्त भी वह लगाते। विनम्रतापूर्वक सवाल तो यह भी उठाया जा सकता है कि क्या वह आपदा को अवसर कहते? क्योंकि हम जानते ही हैं कि शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, यंत्रीकरण को लेकर वे बहुत समर्थक तो नहीं थे, तो इस संकट को अपने ग्राम स्वराज के पुनरुत्थान का अवसर भले ही मान सकते थे। इस संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि आज गांधी होते, तो कहीं साबरमती या वर्धा के आश्रम में बैठे हुए फोन या ट्वीट करते हुए खुद के लिए या अपने परिवारजन के लिए किसी अस्पताल में ऑक्सीजन बेड, वेंटीलेटर, आईसीयू, रेमडेसिविर जुटा रहे होते, या वैक्सीन की दूसरी डोज के लिए संघर्ष कर रहे होते या अपने परिजन का शव लेकर श्मशान में प्रतीक्षारत होते। ऐसी तमाम कोशिशों में जुटे भारतीयों में ही हम गांधी को देखें, या कम से कम उनका अंतिम जन तो मान ही लें, जिस तक स्वराज पहुंचना अभी सपना ही है।
- लेखक फिल्म प्रोफेशनल और स्वतंत्र इतिहासकार हैं

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